कश्मीरी पंडितों का एक वर्ग कश्मीर लौटने के पक्ष में है तो दूसरा विपक्ष में। दूसरे पक्ष का कहना यह है कि हमसे अगर घर-वापसी की बात की जा रही है तो फिर हमें मार-पीट कर भगाया ही क्यों गया? क्या गारंटी है कि हमारे साथ दुबारा वह न हो जिसको हम ने आज से लगभग तीस साल पहले झेला है।
रही बात अलग से ‘होमलैंड’ का निर्माण करने की और वहां पर पंडितों को बसाने की। कहने को यह बात सरल लगती है मगर इसको अमल में लाना मुश्किल है। वादी में पंडितों को अलग से बसाने के लिए एक वृहत भूमि-खंड अगर सरकार ने आवंटित कर भी दिया तो इस होमलैंड में आवास, शिक्षा, रोज़गार, यातायात, चिकित्सा आदि से जुड़े संसाधनों को विकसित करने में कितना समय और धन लगेगा, यह एक विचारणीय बिंदु है।
उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना आदि राज्यों की बात दूसरी है। ये राज्य भौगोलिक सीमाओं के भीतर अलग हुए। इन राज्यों में लोग इधर से उधर नहीं हुए और न ही बेघर हुए। कश्मीर का मामला दूसरा है। कश्मीर के ‘होमलैंड’ में लोग बाहर से आकर बसेंगे। उन्हें पूरी सुरक्षा के साथ-साथ वे सारी सुविधाएँ देनी होंगी जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है।
१९६६ की एक घटना याद आ रही है। मेरी नई-नई नौकरी लगी थी राजस्थान में । शहर मेरे लिए नया था और लोग भी नए । स्टाफ रूम में अक्सर कश्मीर को लेकर बातें होतीं। -- "नेहरू ने गलती की, धारा 370 हटा देनी चाहिए थी, यहां के लोगों को वहां बसाया जाना चाहिए था, क्या खूबसूरत जगह है, आदि-आदि।"
बहुत दिनों तक मैं यह सब सुनता रहा। आखिर एक दिन मैं ने कह ही दिया: 'भई, जो-जो वहां पर बसना चाहता है वह-वह मुझे अपने नाम लिखाओ।‘ सभी बगले झाँकने लगे। किसी ने नाम नहीं लिखवाया। सभी का कहना था हम यहाँ मज़े में हैं, वहां क्योंकर जाएँ भला? यहाँ हमारे पास भगवान की दया से अच्छा रोज़गार है, घर-बार है, रिश्तेदारियां हैं आदि-आदि। ना बाबा न।, हम तो नहीं जाएंगे।
यही हाल विस्थापित पंडितों का है। ३० सालों की दरबदरी के बाद अब ये और इनकी जवान पीढ़ियां अपनी मेहनत, लगन और सब कुछ गंवाने के बाद जहाँ पर भी हैं, एक तरह से सेटल हो गए हैं। अब ये कहीं नहीं जाने वाले। चाहे तो हाथ खड़े करवा लो या नाम लिखवा लो। घूमने-फिरने जाएँ तो बात अलग है। तीस वर्षों के निर्वासन ने इस पढ़ी-लिखी कौम को बहुत-कुछ सिखाया है। स्वयालम्बी बनाया है, मजबूत और व्यवहार-कुशल बनाया है। जो जहां भी है, अपनी मेहनत और मिलनसारिता से उसने अपने लिए एक जगह बनायी है। बस,खेद इस बात का है कि एक ही जगह पर केंद्रित न होकर यह छितरायी कौम अपनी सांस्कृतिक धरोहर शनै:-शनै: खोती जा रही है। समय का एक पड़ाव ऐसा भी आएगा जब विस्थापन की पीड़ा से आक्रान्त/बदहाल यह जाति धीरे-धीरे अपनी पहचान और अस्मिता खो देगी। नामों-उपनामों को छोड़ इस जाति की अपनी कोई पहचान बाकी नहीं रहेगी।
हर सरकार का ध्यान अपने वोटों पर रहता है। उसी के आधार पर वह कार्ययोजनाएं बनाती है और बड़े-बड़े निर्णय लेती है। पंडित-समुदाय उसका वोट-बैंक नहीं, वोट पैदा करने का असरदार अस्त्र/माध्यम है। अतः तवज्जो देने लायक भी नहीं है।
Dr. Shiben Krishen Raina
डॉ० शिबन कृष्ण रैणा
पूर्व सदस्य, हिंदी सलाहकार समिति, विधि एवं न्याय मंत्रालय, भारत सरकार
पूर्व अध्येता, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला तथा पूर्व वरिष्ठ अध्येता (हिंदी) संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार
2/537 Aravali Vihar(Alwar)
Rajasthan 301001
Dr. Raina's mini bio can be read here:
http://www.setumag.com/2016/07/author-shiben-krishen-raina.html